कुछ अनकही

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कल्पना

6 साल की थी कल्पना, जब उसे पहली बार देखा था। बिलकुल परी की तरह लगती थी। कुछ ही दिनों में एक गहरा सा लगाव हो गया था, उस नन्ही सी जान से। उन दिनों ऑफिस से आते वक़त खूब सारी जलेबियाँ खरीद लाता था/ कल्पना को बड़ी स्वाद लगती थीं। भइया कहकर चिपक जाती, तो लगता अपनी ही सुनीता (मेरी सगी छोटी बहन) गले लग रही हो जैसे। अभी नए ही आये थे ये लोग पड़ोस में - पति, पत्नी और उनकी ये फूल जैसी छोटी गुडिया। 

फिर जॉब बदलनी पड़ी; जॉब के साथ रहने की जगह भी। बड़ा रोई थी कल्पना उस दिन; और, मै भी तो कितना रोया था। जाते वक़त उसके हाथ में जलेबी का एक बड़ा पैकेट रख आया था, और एक वादा, की जल्द ही उससे मिलने आवूंगा।

दिन हफ़्तों में बदले, और हफ्ते महीनो में। काम में इतना मशगूल हुए की बाकि दुनिया जहाँ भूल सा ही गया था। छुट्टी थी सायद उस दिन/ अचानक कल्पना का ध्यान आया, और अपना दिया वादा भी। फिर क्या था, झट से तैयार हुआ, और निकल पड़ा, अपनी नन्ही परी से मिलिने। गली में पहुँचते है क़दमों की रफ़्तार एकाएक तेज सी हो गयी/ मन बडा उत्सुक सा हो रहा था, उससे मिलने को/ जलेबी का पैकेट गली के बहार ही खरीद लिया था/ देखेगी तो पहले झट से लिपट जाएगी, और फिर जलेबी को बोलेगी/ जानता था सो जलेबी पहले ही खरीद ली थी।

जल्दी जल्दी सीडियां चड़ा/ दायीं तरफ, पहला वाला कमरा था, जिसमे कल्पना और उसके माता पिता रहते थे/ पहुँचते ही कमरे का पर्दा हटाता हूँ तो देखता हूँ, की एक अजीब सा सन्नाटा पसरा है, कमरे में/ पति पत्नी दोनों फर्श पर बेठे हैं, पति एक हाथ इ चाय का कांच वाला गिलास है, और पत्नी (जो बमुश्किल 26-27 साल की होंगी), वो सुबक सुबक के रो रही है। मुझे देखते ही, पत्नी जोर जोर से रोने लगी, और पति महोदय उसे चुप करने का प्रयास करने लगे। मेरी नजरें अभी भी कल्पना को ढूँढ रहीं थी/ लेकिन वो कमरे में दिखी ही नही। बाद में जो पता चला, उसने मेरी आत्मा को भीतर तक जन्झोर दिया।


उस दिन, कल्पना जब स्कूल से घर आई, तो देखा की कमरे का दरवाजा लॉक है/ पड़ोस के कमरे में रहने वाले लड़के को चाबी देकर दोनों पति पत्नी किसी रिश्तेदार के यहाँ चले गए थे/ खाना बना कर रखा था/ खाना खिलाकर लड़का उसे अपने कमरे में ले गया। 

शाम को 6 बजे जब दोनों पति पत्नी वापिस आये, तो कल्पना को अपने कमरे में न पाकर, साथ वाले कमरे में देखने चले गए। कमरे में किनारे की और कल्पना का नग्न शव पड़ा था, खून से लतपत। 

पुलिस आयी, पंचनामा हुआ, और फिर उस लड़के को भी पकड़ लिया गया। 

ऐसा लग रहा था, जैसे कोई पिघला हुआ लोहा मेरे कानों में डाल  रहा था/ जलेबी का पजल्दी जल्दी सीडियां उतरने लगा। कुछ आंसूं आँखों में उभरने लगे, मैंने उन्हें गिरने से पहले ही पोच लिया। जल्दी से गली से बहार निकल गया, और भीड़ में खो गया। 


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झोपड़-पट्टी का छोकरा

ऑफिस के लिए देर हो रही थी। कमबख्त, जरा देर हुई, की आधे दिन की तनखा कट। ऑफिस से आठ-दस कदम की दूरी पर था, की एक कालाकलूटा छोकरा मेरे सामने आकर खड़ाहो गया और एक रुपया मांगने लगा। पास की जोफाद-पट्टी का ही था, शायद।

मैं बुरी तरह से झुंजला गया। मगर लड़का था, की हार नि नही मान रहा था। हार कर, जेब से एक रुपया देना ही पड़ा। उससे पिंड छुडा कर, जल्दी से अपने ऑफिस की तरफ़ लपका। तीन-चार मिनट ही शेष बचे थे, नो बजने मैं।

अचानक, मन मैं जाने क्या हुआ, की मैंने पलट के उसकी और देखा। लड़के की आंखें खुसी के मरे चमक रही थीं। उसने मुझे पलते हुए देखा, तो खुशी से मेरी तरफ़ हात हिलाने लगा। मेरे होटों पर भी एक हलकी सी मुस्कान बिखर गयी।

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